इसमें कर्म के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति की जाती है । श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग को सर्वश्रेष्ठ माना गया है । गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग अधिक उपयुक्त है । हममें से प्रत्येक किसी न किसी कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं; क्योंकि हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते । जीवन की रक्षा के लिए, समाज की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है । किन्तु यह भी एक सत्य है कि दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है । सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ करते हैं । कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है और इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा । इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है । फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है । यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का बड़ा भाग नष्ट कर देता है । कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के लिए कर्म करो, आसक्तिरहित होकर कर्म करो । कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका कोई हेतु नहीं है । कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है । उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता । वह जानता है कि वह दे रहा है, और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता । वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है । गीता में कहा गया है कि मन का समत्व भाव ही योग है जिसमें मनुष्य सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, संयोग-वियोग को समान भाव से चित्त में ग्रहण करता है । कर्म-फल का त्याग कर धर्मनिरपेक्ष कार्य का सम्पादन भी पूजा के समान हो जाता है । संसार का कोई कार्य ब्रह्म से अलग नहीं है । इसलिए कार्य की प्रकृति कोई भी हो निष्काम कर्म सदा ईश्वर को ही समर्पित हो जाता है । पुनर्जन्म का कारण वासनाओं या अतृप्त कामनाओं का संचय है । कर्मयोगी कर्मफल के चक्कर में ही नहीं पड़ता, अत: वासनाओं का संचय भी नहीं होता । इस प्रकार कर्मयोगी पुनर्जन्म के बन्धन से भी मुक्त हो जाता है ।